Fake News Law : ‘फेक न्यूज’ अब मज़ाक नहीं! 7 साल जेल और 10 लाख का जुर्माना संभव.

Fake News Law  : सोशल मीडिया के दौर में सबसे ज्यादा लोग फर्जी खबरों के शिकार बनते हैं। वे बिना जांचे-परखे बेबुनियाद खबरों पर यकीन कर लेते हैं। साथ ही उसे दूसरों को फॉरवर्ड करने या सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर शेयर करने में भी संकोच नहीं करते। इन सबके बीच ‘गलत सूचना और फर्जी खबर (निषेध) विधेयक, 2025’ ने देशभर में बहस को जन्म दे दिया है। यह विधेयक न सिर्फ फर्जी खबरों को रोकने के लिए कड़ी सजा का प्रावधान करता है, बल्कि सोशल मीडिया पर महिलाओं के खिलाफ विचारों या सनातन प्रतीकों का अपमान करने को भी फर्जी खबर की श्रेणी में रखता है।

कर्नाटक सरकार द्वारा लाए गए इस विधेयक के अनुसार दोषी पाए जाने पर सात साल की कैद और 10 लाख रुपये तक के जुर्माने का प्रावधान है। सोशल मीडिया यूजर द्वारा फर्जी खबर पोस्ट करने के मामले में दोषी पाए जाने पर उसे यह सजा हो सकती है।

विधेयक में प्रावधान है कि फर्जी खबरों की पहचान एक प्राधिकरण करेगा, जिसके अध्यक्ष कन्नड़ और संस्कृति मंत्री होंगे। इसके साथ ही दो विधायक, दो सोशल मीडिया प्रतिनिधि और एक वरिष्ठ अधिकारी सदस्य होंगे। यह प्राधिकरण तय करेगा कि सोशल मीडिया पर केवल उन्हीं विषयों को पोस्ट किया जाए जो प्रामाणिक शोध पर आधारित हों, खास तौर पर विज्ञान, इतिहास, धर्म, दर्शन और साहित्य से जुड़े विषयों पर।

कौन से विषय फर्जी समाचार माने जाएंगे?

बिल में फर्जी समाचार की परिभाषा बहुत व्यापक है। इसके अनुसार जानबूझकर या लापरवाही से गलत जानकारी देने के इरादे से पोस्ट की गई खबर या सूचना फर्जी समाचार मानी जाएगी। गलत इरादे से वीडियो या ऑडियो को एडिट करके पोस्ट करने की कोशिश भी फर्जी समाचार मानी जाएगी। महिलाओं की गरिमा का अपमान करने, नारीवाद विरोधी विचार और सनातन प्रतीकों का अनादर करने पर भी सजा होगी।

हालांकि, बिल में व्यंग्य, कला, हास्य, धार्मिक प्रवचन या राय को फर्जी समाचार की परिभाषा से बाहर बताया गया है, लेकिन कलात्मक अभिव्यक्ति की कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं दी गई है।

कानून की संवैधानिक वैधता पर सवाल

यह बिल बॉम्बे हाईकोर्ट के उस फैसले के भी खिलाफ जाता है जिसमें कोर्ट ने आईटी नियमों के तहत केंद्र सरकार द्वारा गठित फैक्ट चेक यूनिट को असंवैधानिक करार दिया था। न्यायालय ने कहा था कि न्यायिक निगरानी के बिना सरकार द्वारा फर्जी खबरों की एकतरफा पहचान करना असंवैधानिक है।

जनवरी 2024 में न्यायमूर्ति गौतम पटेल ने फर्जी खबरों की केंद्र सरकार की परिभाषा को अस्पष्ट और अतिव्यापक बताया था, जिसका अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

श्रेया सिंघल बनाम भारत संघ (2013) में ऐतिहासिक फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने आईटी अधिनियम की धारा 66ए को यह कहते हुए निरस्त कर दिया था कि, “कोई व्यक्ति सरकारी या सामाजिक विषयों पर अपने विचार व्यक्त कर सकता है, जो कुछ लोगों को असहज या आपत्तिजनक लग सकते हैं, लेकिन यह ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ के अंतर्गत आता है।”

मंत्री और विधायक मिलकर तय करेंगे कि कौन सी सामग्री फर्जी खबर है। इससे सरकार द्वारा आलोचना को दबाने का जोखिम बढ़ सकता है। व्यंग्य और राय को फर्जी खबर से अलग बताया गया है, लेकिन इसके अभाव में मनमाने फैसले लिए जा सकते हैं। जांच, निर्णय और सजा तय करने का अधिकार सरकार द्वारा नामित समिति को दिया गया है – जो संवैधानिक संतुलन को प्रभावित करता है। नए कानून में अपराधियों को अग्रिम जमानत का अधिकार नहीं मिलेगा।

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