Land Acquisition Rules : सरकार बिना सहमति के ले सकती है आपकी जमीन?

Land Acquisition Rules: देशभर में बुनियादी ढांचे और औद्योगिक परियोजनाओं के विस्तार के साथ भूमि अधिग्रहण काफी संवेदनशील मुद्दा बन गया है। ऐसे में अक्सर सवाल उठता है कि क्या सरकार किसी नागरिक की जमीन उसकी सहमति के बिना ले सकती है? इसका जवाब है– हां, कुछ स्थितियों में ले सकती है। लेकिन, इसकी एक तय कानूनी प्रक्रिया है, जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती।

जमीन लेने के मामले में संविधान और कानून क्या कहते हैं?

सरकार को ‘जनहित’ में जनता से जमीन लेने का अधिकार है। देश का संविधान और अधिग्रहण कानून, दोनों इसकी इजाजत देते हैं। अभी सरकार ‘राइट टू फेयर कॉम्पेन्सेशन एंड ट्रांसपेरेंसी इन लैंड एक्विजिशन, रीहैबिलिटेशन एंड रीसेटलमेंट एक्ट, 2013′(LARR Act) के तहत जमीन अधिग्रहण करती है।

यह कानून सुनिश्चित करता है कि सरकार या निजी कंपनी ‘जनहित’ में जब भी जमीन लें, तो जमीन मालिकों और प्रभावित परिवारों को उचित मुआवजा मिले। अगर अधिग्रहण में किसी घर का जाता है, तो नया घर, या उसकी वाजिब कीमत, या फिर निर्माण में मदद दी जाती है।

 

यह कानून पारदर्शिता बढ़ाने, जबरदस्ती अधिग्रहण रोकने और सामाजिक प्रभाव का आकलन जरूरी करने के लिए 1894 के पुराने भूमि अधिग्रहण कानून की जगह लाया गया था। इसमें ग्रामीण क्षेत्रों में बाजार मूल्य से कम से कम 2 गुना और शहरी क्षेत्रों में 1 गुना मुआवजे का प्रावधान है। साथ ही, प्रभावित परिवार को दोबारा बसाने और सामाजिक सहमति की अनिवार्यता भी तय की गई है।

 

जमीन अधिग्रहण पर सुप्रीम कोर्ट का क्या रुख है?

 

सुप्रीम कोर्ट ने ‘सुख दत्त रात्रा बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य’ (2022) मामले में जमीन अधिग्रहण को लेकर अपना नजरिया पूरी तरह स्पष्ट किया। उसने अपने फैसले में कहा कि सरकार किसी व्यक्ति की निजी संपत्ति को बिना कानूनी प्रक्रिया और बिना मुआवजा दिए जबरन अपने कब्जे में नहीं ले सकती। यह मामला भारतीय संविधान के अनुच्छेद 300-A से जुड़ा था, जो कहता है कि किसी भी व्यक्ति को उसकी संपत्ति से कानून द्वारा अधिकृत प्रक्रिया के बिना वंचित नहीं किया जा सकता।

 

अदालत ने साफ कहा कि बिना प्रक्रिया के अधिग्रहण न सिर्फ संविधान का उल्लंघन है, बल्कि यह मानवाधिकारों का भी हनन है। सुप्रीम कोर्ट ने दो टूक शब्दों में कहा कि सरकार को अगर किसी की जमीन लेनी है, तो उसे भूमि अधिग्रहण की तय प्रक्रिया का पालन करना होगा और उचित मुआवजा देना अनिवार्य है।

 

क्या जमीन अधिग्रहण में सहमति लेनी जरूरी है?

 

जवाब इस पर बात पर निर्भर करता है कि जमीन किस काम के लिए ली जा रही है। LARR Act, 2013 के अनुसार, कुछ मामलों में सहमति लेनी जरूरी है। वहीं, कुछ मामलों में बिना सहमति के भी जमीन ली जा सकती है। हालांकि, दोनों ही हालात में मुआवजा और फिर प्रभावित परिवारों को बसाने का इंतजाम करना होगा।

 

अधिग्रहण की प्रकृति सहमति जरूरी है?
सरकारी परियोजनाएं (जैसे सड़क, रेलवे) नहीं
निजी परियोजनाएं
हां, 80% जमीन मालिकों की सहमति जरूरी
पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप (PPP)
हां, 70% सहमति जरूरी

 

इसका मतलब है कि सरकार सड़क या रेलवे की पटरी बनाने जैसे काम के लिए सिर्फ मुआवजा देकर जमीन अधिग्रहण कर सकती है। आपकी राजी हों या नहीं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। हालांकि, अगर कोई निजी कंपनी किसी क्षेत्र में परियोजना शुरू करना चाहती है, तो वह तब तक भूमि नहीं ले सकती जब तक उसे एक बड़ी संख्या में जमीन मालिकों की लिखित मंजूरी न मिली हो। ।

 

जमीन अधिग्रहण में कितना मुआवजा मिलेगा?

 

LARR एक्ट में प्रभावितों के लिए बेहतर मुआवजे की व्यवस्था की गई है। ग्रामीण क्षेत्रों में बाजार मूल्य का कम से कम 2 गुना मुआवजे के तौर पर मिलेगा। वहीं, शहरी क्षेत्रों में 1 गुना दिया जाता है। इसके अलावा पुनर्वास, नकद मदद और वैकल्पिक जमीन या नौकरी देने का प्रावधान भी है

 

हालांकि, ‘बाजार मूल्य’ को लेकर विवाद होते रहे हैं। जमीनी हकीकत के मुकाबले सरकारी ‘सर्किल रेट’ कई बार काफी कम होता है। इससे किसान और जमीन मालिक खुद को ठगा महसूस करते हैं।

 

क्या आप जमीन देने से मना कर सकते हैं?

 

अगर जमीन अधिग्रहण जनहित में है और कानूनी प्रक्रिया का पालन किया गया है, तो व्यक्तिगत रूप से इनकार करने का अधिकार सीमित होता है। हालांकि, कुछ स्थिति में प्रभावित व्यक्ति या समूह अदालत में याचिका दायर कर सकते हैं। जैसे कि :

 

  • अधिग्रहण प्रक्रिया में गड़बड़ी हो।
  • पुनर्वास या मुआवजे में न्याय न हो।
  • सहमति संबंधित नियमों का उल्लंघन हो।

 

न्यायालयों की सख्ती और चर्चित फैसले

 

न्यायपालिका ने समय-समय पर यह स्पष्ट किया है कि भूमि अधिग्रहण में पारदर्शिता और जनहित की वास्तविकता आवश्यक है। सुप्रीम कोर्ट ने यह टिप्पणी भी की है, “भूमि अधिग्रहण में जनहित एक सार्थक उद्देश्य होना चाहिए, न कि एक औपचारिक बहाना।”

 

अगर कुछ प्रमुख जमीन अधिग्रहण मामलों की बात करें, तो सबसे चर्चित सिंगूर केस (पश्चिम बंगाल) रहा। इसमें टाटा मोटर्स के लिए ली गई भूमि को सुप्रीम कोर्ट ने अवैध करार देकर किसानों को लौटाने का आदेश दिया। वहीं, यमुना एक्सप्रेसवे (उत्तर प्रदेश) बनने के दौरान भी किसानों को कम मुआवजा मिलने और जमीन का बाद में निजी बिल्डरों को आवंटन होने पर विवाद हुआ था। हरियाणा और राजस्थान के औद्योगिक क्षेत्रों में भी पुनर्वास और पारदर्शिता को लेकर लंबी कानूनी लड़ाइयां चलीं।

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